'होरी हो ब्रजराज' के सुर-ताल पर थिरक उठी उमंगें कला केन्द्र की पहल पर मानव संग्रहालय का मंच हुआ रौशन
भोपाल ? मुरली की मोहक तान, ढोल-मृदंग से उठती लय-ताल की अलमस्त उड़ान, प्यार-मनुहार भरे गीतों का गान और इस रूहानी सोहबत पर मचलती नृत्य की थिरकनों का गहराता रोमांच... तहजीब के रंगों से सराबोर यह दिलकश नजारा शुक्रवार की शाम भोपाल के रसिकों के लिए वासंती पैगाम बन गया
टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र की ओर से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के मुक्ताकाश मंच पर 'होरी हो ब्रजराज' की शक्ल में सजी यह सलोनी शाम यकीनन दर्शकों के जेहन में मुद्दतों तक कायम रहेगीब्रज और मैनपुरी लोक अंचल में सदियों से प्रचलित होली के गीतों को प्रसिद्ध नृत्यांगना क्षमा मालवीय ने पुरू कथक अकादमी के साठ कलाकारों की मंडली के साथ मनोहारी भाव-भंगिमाओं और लयकारी में जीवंत कर दियाप्रख्यात कथाकार-कवि संतोष चौबे की मूल संकल्पना और विचार को कलात्मक ताने-बाने के साथ बहुत रोचक शैली में पेश किया कला समीक्षक तथा उद्घोषक विनय उपाध्याय ने। जबकि अनूप जोशी बंटी ने होली के सतरंगी परिवेश को अपनी प्रकाश-परिकल्पना से दिलकश बना दिया।
बारह लोक गीतों के साथ 'होरी हो ब्रजराज' का कारवां कृष्ण-राधा और ब्रज के हुरियारों के संग अठखेलियाँ करता प्रेम, सद्भाव, अमन, एकता और भाईचारे की सुंदर मिसाल बना। वरिष्ठ संगीतकार संतोष कौशिक और राजू राव ने इन गीतों का संगीत संयोजन किया है।
करीब डेढ़ घंटे के इस जादुई मंजर की शुरूआत "चलो सखी जमुना पे मची आज होरी” से होती है। कृष्ण, उनकी प्रिय सखी राधा और गोकुल के ग्वाल-बाल मिलकर रंग-गुलाल के बीच मीठी छेड़छाड़ का उल्लास भरा माहौल तैयार करते हैं। फागुन की अलमस्ती और उमंगों का सिलसिला होली गीतों के साथ आगे बढ़ता है और ताल पर ताल देता "आज मोहे रंग में बोरो री" पर जाकर मिलन और आत्मीयता में सराबोर होता हैद्वापर युग से आज तक चली आ रही परंपरा के गीतों की यह खनक देर तक राजधानी के रसिकों से अठखेलियां करती रही। मिट्टी की सौंधी गंध से महकते गीतों और उन्हें संवारती मीठी-अल्हड़ धुनों के साथ कलाकारों के भावपूर्ण अभिनय ने होरी के इस रूपक को एक रोमांचक अहसास में बदल दिया। वनमाली सृजन पीठ और आईसेक्ट स्टुडियो की साझा पहल से यह प्रस्तुति तैयार हुई है। इसमें तकनीकी सहयोग प्रशांत सोनी, सौरभ अग्रवाल, आशीष पोद्दार, उपेन्द्र पटने, रमेश विश्वकर्मा, रोहित श्रीवास्तव, प्रांजल श्रोत्रिय, विक्रांत भट्ट, अमीन शेख तथा सिरिल का रहा
खनकते रहे परंपरा के होरी गीतों के सुर :
चलो सखी जमुना पे मची आज होरी... यमुना तट श्याम खेलत होरी... बरजोरी करें रंग डारी... होरी हो ब्रजराज हमारे । बहुत दिनन सों रूठे श्याम... मैं तो तोही को ना छाडूंगी. ... रंग में बोरो री...
उत्सवीधर्मी परंपरा का प्रतिबिंब : आईसेक्ट स्टुडियो की हमारी टीम ने दो-तीन बरस तक ब्रज की गाँव-गलियों की खाक छानी और लोक गीतों का उसकी मौलिक धुनों के साथ संग्रह किया। दिलचस्प ये कि दो-चार-दस नहीं, दो सौ से भी ज्यादा सैकड़ों होली गीतों का जखीरा हाथ लगा। फिर शुरू हुआ सिलसिला उन्हें गौर से सुनने और करीने से सँवारने का। इस दौरान महसूस हुआ कि ये गीत महज शब्द और स्वरों का संयोजन भर नहीं है। ये भारतीय संस्कृति और उत्सवधर्मी परंपरा के प्रतिबिंब है। - संतोष चौबे, कथाकार-कवि तथा चेयरमेन आईसेक्ट समूह
सौंधा, मीठा–मादक अहसास : 'होरी-हो ब्रजराज' परंपरा का एक सौंधा और मीठा-मादक अहसास है। इससे गुजर कर भीतर जाने कितने ही भाव गहरे हो उठते हैं। इस रंग-बिरंगे रूपक में लोक का खुला मीठा संगीत है तो लय-ताल और देशी साज-बाज़ की गमक के साथ चलती शास्त्रीय राग-रागिनियों की छाया अनोखा स्वाद और आनंद देती हैइसमें नृत्य और अभिनय का संयोजन कर क्षमा मालवीय और उनकी शिष्याओं ने इस अहसास को और भी घना कर दिया।